सोमवार, 28 दिसंबर 2009

डा श्याम गुप्त के पद----

( पद- गीत का एक रूप है, भक्त कवियों द्वारा यह मुख्यतः प्रयोग किया गया है।िसमें प्रथम पन्क्ति टेक की भान्ति कम मात्रा की , लगभग आधी व अन्य सभी पन्क्तियांपूरी होतीं हैं।पदों की हिन्दी में दो मुख्य धारा मिलतीं हैं---सूर दास की पद धारा -जिसमें सभी पन्क्तियों में वही अन्त्यानुप्रास रहता है। दूसरी तुलसी की पद धारा--जिसमें दो दो पन्क्तियों के अन्त्यानुप्रास होते हैं, जो हर दो पन्क्तियों के बाद बदल सकते हैं, यद्यपि सूर -तुलसी ने सभी तरह के पद लिखे हैं) देखिये श्याम गुप्त के दो पद--


१. सूरदास परम्परा--


को तुम कौन कहां ते आई।
पहली बेरि मिली हौ गोरी का ब्रज कबहुं न आई।
बरसानौ है धाम हमारो, खेलत निज अंगनाई ।
सुनी कथा दधि माखन चोरी,गोपिन सन्ग ढिढाई।
हिलिमिलि चलि दधि-माखन खैयें तुम्हरो कछु न चुराई।
मन ही मन मुसुकाइ किशोरी कान्हा की चतुराई।
नैन नैन मिलि सुधि बुधि भूली भूलि गई ठकुराई।
चन्चल चपल चतुर बतियां सुनि राधा मन भरमाई ।
हरि हरिप्रिया मनुज लीला लखि सुर नर मुनि मुसुकाई॥


२. तुलसी परम्परा---


सुअना मन के भरम परे ।



जैसा अन्न हो जैसी सन्गति सोई धर्म धरे ।




संतन देरा वास करे जे राम नाम गुन गाये।
अन्न भखे गणिका के घर ते, दुष्ट बचन चिल्लाये।


परि भुजन्ग मुख बने गरल, और मोती सीप समाई।
परे केर के पात स्वाति जल, सो कपूर बनि जाई ।


दीपक गुन बनि मिटे अन्धेरो,चरखा सूत बुने ।
सोई कपास सन्ग अनल-अनिल केघर को भसम करे।


काम क्रोध मद मोह लोभ अति बैरी राह छिपे हैं ।
ये सारे मन के गुन सुअना,तिरगुन भरम भरे हैं ।


चिअ चितवन चातुर्य विषय वश हित अनहित ही भावै ।
माया मन की सहज़ व्रित्ति मन सुगम राह ही जावै ।


काल उरग साये मे सब जग,भ्रम वश प्रभु बिसरे ।
एक धर्म बस श्याम नाम , नर भव सागर उतरे ॥













बुधवार, 9 दिसंबर 2009

अफ़सर ................कहानी ( डाo श्याम गुप्ता )


मैं रेस्ट हाउस के बरांडे में कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ सामने आम के पेड़ के नीचे बच्चे पत्थर मार- मार कर आम तोड़ रहे हैं कुछ पेड़ पर चढ़े हुए हैं बाहर बर्षा की हल्की-हल्की बूँदें (फुहारें) गिर रहीं हें सामने पहाडी पर कुछ बादल रेंगते हुए जारहे हैं, कुछ साधनारत योगी की भांति जमे हुए हैं निरंतर बहती हुई पर्वतीय नदी की धारा 'चरैवेति -चरेवैति ' का सन्देश देती हुई प्रतीत होती है बच्चों के शोर में मैं मानो अतीत में खोजाता हूँ गाँव में व्यतीत छुट्टियां , गाँव के संगी साथी .... बर्षा के जल से भरे हुए गाँव के तालाव पर कीचड में घूमते हुए; मेढ़कों को पकड़ते हुए , घुटनों -घुटनों जल में दौड़ते हुए , मूसलाधार बर्षा के पानी में ठिठुर-ठिठुर कर नहाते हुए ; एक-एक करके सभी चित्र मेरी आँखों के सामने तैरने लगते हैं सामने अभी-अभी पेड़ से टूटकर एक पका आम गिरा है, बच्चों की अभी उस पर निगाह नहीं गयी है बड़ी तीब्र इच्छा होती है उठाकर चूसने की अचानक ही लगता है जैसे मैं बहुत हल्का होगया हूँ और बहुत छोटा दौड़कर आम उठा लेता हूँ वह! क्या मिठास है !मैं पत्थर फेंक-फेंक कर आम गिराने लगता हूँ कच्चे-पक्के , मीठे-खट्टे अब पद पर चढ कर आम तोड़ने लगता हूँ पानी कुछ तेज बरसने लगा है ,मैं कच्ची पगडंडियों पर नंगे पाँव दौड़ा चला जारहा हूँ , कीचड भरे रास्ते पर पानी और तेज बरसने लगता है बरसाती नदी अब अजगर के भांति फेन उगलती हुई फुफकारने लगी है पानी अब मूसलाधार बरसने लगा है सारी घाटी बादलों की गडगडाहट से भर जाती है और मैं बच्चों के झुण्ड में इधर-उधर दौड़ते हुए गारहा हूँ ---


""बरसों राम धडाके से , बुढ़िया मरे पडाके से ""



" साहब जी ! मोटर ट्राली तैयार है ", अचानक ही बूटा राम की आवाज़ से मेरी तंद्रा टूट जाती है ,सामने पेड़ से गिरा आम अब भी वहीं पडा हुआ है बच्चे वैसे ही खेल रहे हैं मैं उठकर चलदेता हूँ वरांडे से वाहर हल्की-हल्की फुहारों में सामने से दौलत राम व बूटा राम छाता लेकर दौड़ते हुए आते हैं , ' साहब जी ऐसे तो आप भीग जाएँ गे ' और मैं गंभीरता ओढ़ कर बच्चों को, पेड़ को .आम को व मौसम को हसरत भरी निगाह से देखता हुआ टूर पर चल देता हूँ