मंगलवार, 7 जून 2011

मुक्त छंद कविता ...डा श्याम गुप्त ....

मन के अंतरतम में ,
जब भाव-
उन्मुक्त बहते हैं,
स्वच्छंद, स्वतंत्र,
भावना की, सत्य की,
ऊंची उड़ान लिए;
विकास पथ की ओर
अग्रसर होने को ;
मानव मन के, 
संसार के,
दर्शन, ज्ञान विज्ञान को-
ऊंचाई देने को |

आस्था अमरता आत्मा व-
तत्व दर्शन  की व्याख्या के लिए ,
काव्य को,
कालजयी बनाने को |

तब कविता होजाती है, मुक्त-
छंद से,
छंद भव जाल से,
छन्द संसार से |
और बन जाती है-
छंद मुक्त,
मुक्त छंद कविता |

कवि को भरना होता है,
गागर में सागर |
कहानी होती है,
बिना लाग लपेट 
सीधी सच्ची ,
वैज्ञानिक ,
तत्व व्याख्या ;
लघुता में विभुता भरती हुई |

नहीं रहता है जहां स्थान ,
छन्द बद्धता,
अलंकार व तुकांतकी विभुता, व-
अगत्यात्मकता का |

एक ही कथन को-
उपमा रूपक उत्प्रेक्षा से , सजाकर-
बार बार कहने का |
पिष्ट-पेषण करने का |

इसीलिये-
श्रुति, संहिता, सामगान व-
मुक्त नज्में ,
अप्रतिम व अमर -
गेयता लिए हुए भी --
मुक्त छंद हैं ||