मंगलवार, 6 सितंबर 2016

हिन्दी के विरुद्ध षडयंत्र ...डा श्याम गुप्त



                     हिन्दी के विरुद्ध षडयंत्र ...डा श्याम गुप्त

            स्वतन्त्रता के आन्दोलन के साथ हिन्दी की प्रगति का रथ भी तेज़ गति से आगे बढ़ा और हिन्दी राष्ट्रीय चेतना की प्रतीक बनी| स्वाधीनता आन्दोलन का नेतृत्व यह जानता था कि लगभग १००० वर्षों से हिन्दी सम्पूर्ण भारत की एकता का कारक रही है| संतों, फकीरों, व्यापारियों, तीर्थयात्रियों, सैनिकों आदि के माध्यम से यह भाषा समस्त देश के कोने कोने में प्रयुक्त होती रही है।
        मूलतः हिन्दी को यह मान्यता दिलाने वालों में वे विद्वान् थे जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी। यथा बंगाल के केशवचन्द्र सेन, राजा राम मोहन राय, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस; पंजाब के बिपिनचन्द्र पाल, लाला लाजपत राय; गुजरात के स्वामी दयानन्द, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी; महाराष्ट्र के लोकमान्य तिलक तथा दक्षिण भारत के सुब्रह्मण्यम भारती आदि । इस प्रकार हिन्दी भारतीय स्वाभिमान और स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई और राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक |
       हिन्दी को सम्पूर्ण भारत में व्यवहार की भाषा बनाने, सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित करने एवं राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिलाने में महात्मा गाँधी महत्वपूर्ण रही | गाँधी जी ने कहाः हिन्दुस्तान को अगर सचमुच एक राष्ट्र बनाना है तो चाहे कोई माने या न माने राष्ट्रभाषा हिन्दी ही बन सकती है। कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन में गाँधी जी ने हिन्दी में भाषण दिया, आर्य समाज मंडप,गुजरात शिक्षा सम्मेलनमें गाँधी जी ने हिन्दी का प्रतिपादन किया |
      स्वाधीनता के बाद हिन्दी की घोर उपेक्षा कीगयी क्योंकि तत्कालीन सरकार का विचार था कि हिन्दी को आगे बढ़ाने से दक्षिण भारत के लोगों पर विपरीत प्रतिक्रिया होगी | हिन्दी में वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली के लिए वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग बनाया गया जिसने जटिल, क्लिष्ट एवं अप्रचलित शब्दावली तैयार की । सभी जानते हैं कि शब्द बनाए नहीं जाते, लोक के प्रचलन एवं व्यवहार से विकसित होते हैं|
       क्योंकि यह ध्यान नहीं रखा गया कि शब्दकोश व भाषा सामान्य आदमी को समझ में आ सकें, इस कारण व्यवहार में अंग्रेजी के शब्दों का ही प्रयोग होता रहा। भाषा लोकतंत्र में शासन और जनता के बीच संवाद होती है। इस कारण वह आम आदमी के लिए बोधगम्य होनी चाहिए। वही शब्द सरल एवं बोधगम्य लगता है जो हमारी जबान पर चढ़ जाता है। लोक व्यवहार से भाषा बदलती रहती है। यह भाषा की प्रकृति है।            
हिन्दी भाषा व क्षेत्रीय बोलियाँ ---
         हिन्‍दी भाषा क्षेत्र' के अन्‍तर्गत भारत के निम्‍नलिखित राज्‍य एवं केन्‍द्र शासित प्रदेश समाहित हैं_  उत्‍तर प्रदेश, उत्‍तराखंड, बिहार,  झारखंड, मध्‍यप्रदेश, छत्‍तीसगढ़, राजस्‍थान, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्‍ली, चण्‍डीगढ़। अतः विभिन्न हिन्दी भाषा-बोलियों को स्वतंत्र भाषा स्वीकारने से पहले यह विचार करना चाहिए कि हिन्दी भाषी राज्यों की बोलियों अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा, बुन्देली, बघेली, मालवी, निमाड़ी, छत्तीसगढ़ी, गढ़वाली आदि भाषाओं को स्वतंत्रता की क्या आवश्यकता है वे सदैव हिन्दी की ही शाखाएं रही हैं उनका साहित्य सदैव से ही हिन्दी साहित्य समझा, माना जाता रहा है |
         प्रत्‍येक भाषा क्षेत्र में भाषिक भिन्‍नताएँ होती हैं। किसी ऐसी भाषा की कल्‍पना नहीं की जा सकती जो जिस भाषा क्षेत्र' में बोली जाती है उसमें किसी प्रकार की क्षेत्रगत एवं वर्गगत भिन्‍नताएँ न हों। व्‍यक्‍ति बोलियों' के समूह को बोली' तथा बोलियों' के समूह को भाषा कहते हैं।
       भारतीय परम्‍परा ने भाषा के अलग अलग क्षेत्रों में बोले जाने वाले भाषिक रूपों को देस की भाखा अथवा ‘देसी भाषा' के नाम से पुकारा, हिन्‍दी भाषा क्षेत्र में हिन्‍दी की मुख्‍यतः 20 बोलियाँ अथवा उपभाषाएँ बोली जाती हैं जो निम्न वर्गों में रखी जा सकती हैं..
क. पश्‍चिमी हिन्‍दी  खड़ीबोली,  ब्रजभाषा,  हरियाणवी,  बुन्‍देली,  कन्‍नौजी
ख. पूर्वी हिन्‍दी अवधी, बघेली, छत्‍तीसगढ़ी, भोजपुरी, मैथिली, मगही
दक्षिण-मध्य हिन्दी (रास्थानी) मारवाड़ी, मेवाती, जयपुरी, मालवी
घ. उत्तरी हिन्दी या पहाड़ी – कुमाऊँनी, गढ़वाली एवं  हिमाचल प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों की हिन्‍दी बोलियाँ जिन्‍हें केवल  ‘पहाड़ी ' नाम से पुकारा जाता है।
       भारत की भाषिक परम्परा के अनुसार एक भाषा के हजारों भेद माने गए हैं मगर अंतर क्षेत्रीय सम्पर्क के लिए एक भाषा की मान्यता रही है। हिन्दी साहित्य की संश्लिष्ट परम्परा रही है। इसी कारण हिन्दी साहित्य के अंतर्गत रास एवं रासो साहित्य की रचनाओं का भी अध्ययन किया जाता है।
      कुछ समय से हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का सिलसिला मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी से आरम्भ हुआ है| मैथिली को अलग भाषा का दर्जा दे दिया गया है यद्यपि हिन्‍दी साहित्‍य के पाठ्‌यक्रम में अभी भी मैथिली कवि विद्‌यापति पढ़ाए जाते हैं| जबसे मैथिली एवं छत्तीसगढ़ी को अलग भाषाओं का दर्जा मिला है तब से भोजपुरी को भी अलग भाषा का दर्जा दिए जाने की माँग प्रबल हो गई है।
       राजस्थानी भाषा जैसी कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है।  यदि राजस्थानी का मतलब केवल मारवाड़ी से लेंगे तो क्या मेवाड़ी, मेवाती, जयपुरी, मालवी, हाड़ौती, शेखावाटी आदि अन्य भाषिक रूपों के बोलने वाले अपने अपने भाषिक रूपों के लिए आवाज़ नहीं उठायेंगे। पहाड़ी भाषाएँ भी हिन्दी के अंतर्गत ही हैं| खड़ी बोली' हिन्‍दी भाषा क्षेत्र का उसी प्रकार एक भेद है ; जिस प्रकार हिन्‍दी भाषा के अन्‍य बहुत से क्षेत्रगत भेद हैं।
          हिन्‍दी भाषा के संदर्भ में विचारणीय है कि अवधी, बुन्‍देली, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली आदि को हिन्‍दी भाषा की बोलियाँ माना जाए अथवा उपभाषाएँ माना जाए। सामान्‍य रूप से इन्‍हें बोलियों के नाम से अभिहित किया जाता है| यहाँ यह भी उल्‍लेखनीय है कि इन उपभाषाओं के बीच कोई स्‍पष्‍ट विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है। प्रत्‍येक दो उपभाषाओं के मध्‍य संक्रमण क्षेत्र विद्‌यमान है।
     हिन्‍दी भाषा का क्षेत्र बहुत विस्‍तृत है। इस कारण इसकी क्षेत्रगत भिन्‍नताएँ भी बहुत अधिक हैं। हिन्‍दी भाषा क्षेत्र के प्रत्‍येक भाग में व्‍यक्‍ति स्‍थानीय स्‍तर पर क्षेत्रीय भाषा रूप में बात करता है। औपचारिक अवसरों पर तथा अन्‍तर-क्षेत्रीय, राष्‍ट्रीय एवं सार्वदेशिक स्‍तरों पर भाषा के मानक रूप अथवा व्‍यावहारिक हिन्‍दी का प्रयोग होता है। उत्तर प्रदेश हिन्‍दी भाषी राज्‍य है परन्तु खड़ी बोली, ब्रजभाषा, कन्‍नौजी, अवधी, बुन्‍देली आदि भाषाओं का क्षेत्र है। इसी प्रकार मध्‍य प्रदेश हिन्‍दी भाषी राज्‍य है परन्तु बुन्‍देली, बघेली, मालवी, निमाड़ी आदि भाषायें सम्पूर्ण क्षेत्र में बोली जाती है।
        किसी भाषा के मानक रूप के आधार पर उस भाषा की पहचान की जाती है मगर मानक भाषा, भाषा का एक रूप होता है मानक भाषा ही भाषा नहीं होती। इसी प्रकार खड़ीबोली के आधार पर मानक हिन्‍दी का विकास अवश्‍य हुआ है किन्‍तु खड़ी बोली ही हिन्‍दी नहीं है। तत्‍वतः हिन्‍दी भाषा क्षेत्र के अन्‍तर्गत जितने भाषिक रूप बोले जाते हैं उन सबकी समष्‍टि का नाम हिन्दी है।
     अतः बोलियों को भाषा का दर्जा दिलाने के लिए योजनाबद्ध चिंतकों को तटस्थ भाव से इस पर मनन करना चाहिए | कहीं वे हिन्दी का अहित तो नहीं कर रहे | हिन्दी का अहित देश का अहित है |
       वस्तुतः भारतीय भाषाओं के अस्तित्व एवं महत्व को अंग्रेजी से खतरा है। संसार में अंग्रेजी भाषियों की जितनी संख्या है उससे अधिक संख्या केवल हिन्दी भाषियों की है। यदि हिन्दी के उपभाषिक रूपों को हिन्दी से अलग मान लिया जाएगा तो भारत की कोई भाषा अंग्रेजी से टक्कर नहीं ले सकेगी और धीरे धीरे भारतीय भाषाओं के अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा।
        मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के आकड़ों के अनुसार हिन्दी को तीसरा स्थान दिया गया है। हिन्दीतर भाषी राज्यों में बहुसंख्यक द्विभाषिक समुदाय द्वितीय भाषा के रूप में अन्य किसी भाषा की अपेक्षा हिन्दी का अधिक प्रयोग करता है। भारत में हिन्दीतर राज्यों में तथा विदेशों में हिन्दी का प्रसार बढ़ रहा है। यह प्रसार बढ़ेगा। चीनी भाषा के बाद हिन्दी के मातृभाषियों की संख्या सर्वाधिक है|
     आज हिन्‍दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने के इस अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय षडयंत्र को विफल करने की आवश्‍कता है |  कुछ ताकतें हिन्दी को उसके अपने ही घर में तोड़ने का कुचक्र एवं षड़यंत्र रच रही हैं। यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि हिन्दी का मतलब केवल खड़ी बोली है। हिन्दी साहित्य को जिंदगी भर पढ़ाने वाले, हिन्दी की रोजी-रोटी खाने वाले, हिन्दी की कक्षाओं में हिन्दी पढ़ने वाले विद्यार्थियों को विद्यापति, जायसी, तुलसीदास, सूरदास जैसे हिन्दी के महान साहित्यकारों की रचनाओं पढ़ाने वाले अध्यापक तथा इन पर शोध एवं अनुसंधान करने एवं कराने वाले आलोचक भी न जाने किस लालच में या आँखों पर पट्टी बाँधकर इस तथ्य को स्वीकार कर रहे हैं |
      क्षेत्रीय भावनाओं को उभारकर एवं भड़काकर ये लोग हिन्दी की संश्लिष्ट परम्परा को छिन्न-भिन्न करने का पाप कर रहे हैं। हिन्दी के किसी आलोचक का यह वक्तव्य दृष्टव्य है---
 हिंदी समूचे देश की भाषा नहीं है वरन वह तो अब एक प्रदेश की भाषा भी नहीं है। उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों की भाषा भी हिंदी नहीं है। वहाँ की क्षेत्रीय भाषाएँ यथा अवधी, भोजपुरी, मैथिल आदि हैं
      इस कुचक्र को तोड़ना ही होगा | हिन्दी दिवस-पखवाड़े के अवसर पर यह हिन्दी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
                                    

रविवार, 28 अगस्त 2016

---प्रेम तत्वामृत---- डा श्याम गुप्त.....


                                   ---प्रेम तत्वामृत----
               भारत ही नहीं अपितु विश्वभर में प्रेम के अधीक्षक श्रीकृष्ण ----राधा  व कृष्ण माने जाते हैं , वे प्रेम के पर्याय हैं अतः राधा व कृष्ण के तत्व द्वारा यहाँ पर प्रेम के दोनों  मूल भावों की विवेचना की जायगी .....

                                               ******राधा तत्वामृत*****
-------राधा ---व्युत्पत्ति व उदभव----
------राधा एक कल्पना है या वास्तविक चरित्र, यह सदियों से तर्कशील व्यक्तियों विज्ञजनों के मन में प्रश्न बनकर उठता रहा है| अधिकाँशतः जन राधा के चरित्र को काल्पनिक एवं पौराणिक काल में रचा गया मानते हैं | कुछ विद्वानों के अनुसार कृष्ण की आराधिका का ही रुप राधा हैं। आराधिका शब्द में से अ हटा देने से राधिका बनता है। राधाजी का जन्म यमुना के निकट स्थित रावल ग्राम में हुआ था। यहाँ राधा का मंदिर भी है। राधारानी का विश्व प्रसिद्ध मंदिर बरसाना ग्राम की पहाड़ी पर स्थित है।
------- यह आश्चर्य की बात हे कि राधा-कृष्ण की इतनी अभिन्नता होते हुए भी महाभारत या भागवत पुराण में राधा का नामोल्लेख नहीं मिलता, यद्यपि कृष्ण की एक प्रिय सखी का संकेत अवश्य है। राधा ने श्रीकृष्ण के प्रेम के लिए सामाजिक बंधनों का उल्लंघन किया। कृष्ण की अनुपस्थिति में उसके प्रेम-भाव में और भी वृद्धि हुई। दोनों का पुनर्मिलन कुरूक्षेत्र में बताया जाता है जहां सूर्यग्रहण के अवसर पर द्वारिका से कृष्ण और वृन्दावन से नंद, राधा आदि गए थे।
-------यहाँ पर हम वस्तुतः राधा शब्द व चरित्र कहाँ से आया इस प्रश्न पर कुछ प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे | प्रयत्न ही कर सकते हैं, यद्यपि यह भी एक धृष्टता ही है क्योंकि भक्ति प्रधान इस देश में श्रीकृष्ण (श्री राधाजी व श्री कृष्ण ) स्वयं ही ब्रह्म व आदि-शक्ति रूप माने जाते हैं अतः सत्य तो वे ही जानते हैं |
****** राधा का चरित्र-वर्णन, श्रीमदभागवत में स्पष्ट नहीं मिलता ....वेद-उपनिषद में भी राधा का उल्लेख नहीं है....राधा-कृष्ण का सांगोपांग वर्णन ‘गीत-गोविन्द’ से मिलता है|
-----वेदों में राधा शब्द -----
-------सर्व-प्रथम ऋग्वेद के भाग-१ /मंडल १,२ ...में ...राधस शब्द का प्रयोग हुआ है ....जिसे वैभव के अर्थ में प्रयोग किया गया है......
-------ऋग्वेद के २/म.३-४-५ में ..सुराधा ...शब्द का प्रयोग श्रेष्ठ धनों से युक्त के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है...सभी देवों से उनकी अपनी संरक्षक शक्ति का उपयोग करके धनों की प्राप्ति व प्राकृतिक साधनों के उचित प्रयोग की प्रार्थना की गयी है|
ऋग्वेद-५/५२/४०९४..में -- राधो व आराधना शब्द ..शोधकार्यों के लिए प्रयुक्त किये गए हैं...यथा..
“ यमुनामयादि श्रुतमुद्राधो गव्यं म्रजे निराधो अश्वं म्रजे |”....
------अर्थात यमुना के किनारे गाय ..घोड़ों आदि धनों का वर्धन, वृद्धि, संशोधन व उत्पादन आराधना सहित करें या किया जाता है | एवं.....
“गवामप ब्रजं वृधि कृणुश्व राधो अद्रिव:
नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः |”
------कृष्ण = क्र = कार्य = कर्म -----राधो = अराधना, राधन ( गूंथना ), शोध, शोधन, नियमितता, साधना ...अर्थात ब्रज में गौ – ज्ञान, सभ्यता उन्नति की वृद्धि ...कृष्ण-राधा द्वारा हुई = ...कर्म व साधना द्वारा की गयी शोधों से हुई |
इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते पिवा त्वस्य गिर्वण (ऋग्वेद ३. ५ १. १ ०) ---ओ राधापति ( इंद्र – बाद में विष्णु ) वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं। उनके द्वारा सोमरस पान करो।
-------विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ २ २. ७). -------ओ सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा जो हमारी आराधना सुनें हमारी रक्षा करो।
त्वं नृचक्सम वृषभानुपूर्वी : कृष्नास्वग्ने अरुषोविभाही ...(ऋग्वेद )
--------इस मन्त्र में श्री राधा के पिता वृषभानु का उल्लेख किया गया है जो अन्य किसी भी प्रकार के संदेह को मिटा देता है ,क्योंकि वही तो राधा के पिता हैं।
------यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : ---(अथर्ववेदीय राधिकोपनिषद )
----राधा वह शख्शियत है जिसके कमलवत चरणों की रज श्रीकृष्ण प्रेमपूर्वक अपने माथे पे लगाते हैं।
******तमिलनाडू की गाथा के अनुसार --दक्षिण भारत का अय्यर जाति समूह, उत्तर के यादव के समकक्ष हैं | एक कथा के अनुसार गोप व ग्वाले ही कंस के अत्याचारों से डर कर दक्षिण तमिलनाडू चले गए थे | उनके नायक की पुत्री नप्पिंनई से कृष्ण ने विवाह किया --- श्रीकृष्ण ने नप्पिंनई को ७ बैलों को हराकर जीता था | तमिल गाथाओं के अनुसार नप्पिनयी नीला देवी का अवतार है जो ऋग्वेद की तैत्रीय संहिता के अनुसार ---विष्णु पत्नी सूक्त या अदिति सूक्त या नीला देवी सूक्त में राधा ही हैं जिन्हें अदिति –दिशाओं की देवी भी कहते हैं | नीला देवी या राधा परमशक्ति की मूल आदि-शक्ति हैं –अदिति ...|
---------श्री कृष्ण की एक पत्नी कौशल देश की राजकुमारी---नीला भी थी, जो यही नाप्पिनायी ही है जो दक्षिण की राधा है | एक कथा के अनुसार राधाके कुटुंब के लोग ही दक्षिण चले गए अतः नप्पिंनई राधा ही थी |
-----पुराणों में श्री राधे :-----
--------वेदव्यास जी ने श्रीमदभागवतम के अलावा १७ और पुराण रचे हैं इनमें से छ :में श्री राधारानी का उल्लेख है।
यथा राधा प्रिया विष्णो : (पद्मपुराण )
राधा वामांश संभूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता (नारद पुराण )
तत्रापि राधिका शश्वत (आदि पुराण )
रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने (मत्स्य पुराण १३. ३७ )
राध्नोति सकलान कामान तेन राधा प्रकीर्तित :(देवी भागवत पुराण )
-----यां गोपीमनयत कृष्णो (श्रीमद भागवतम १०.३०.३५ )
---श्री कृष्ण एक गोपी को साथ लेकर अगोचर हो गए। महारास से विलग हो गए। गोपी, राधा का एक नामहै|
----अन्याअ अराधितो नूनं भगवान् हरिरीश्वर : -(श्रीमद भागवतम )
----इस गोपी ने कृष्ण की अनन्य भक्ति( आराधना) की है। इसीलिए कृष्ण उन्हें अपने (संग रखे हैं ) संग ले
गए, इसीलिये वह आराधिका ...राधिका है |

--------- वस्तुतः ऋग्वेदिक व यजुर्वेद व अथर्व वेदिक साहित्य में ’ राधा’ शब्द की व्युत्पत्ति = रयि (संसार, ऐश्वर्य, श्री, वैभव) +धा (धारक, धारण करने वालीशक्ति) से हुई है; अतः जब उपनिषद व संहिताओं के ज्ञान मार्गीकाल में सृष्टि के कर्ता का ब्रह्म व पुरुष, परमात्मा रूप में वर्णन हुआ तो समस्त संसार की धारक चितशक्ति, ह्लादिनी शक्ति, परमेश्वरी राधा का आविर्भाव हुआ|
----भविष्य पुराण में--जब वेद को स्वयं साक्षात नारायण कहा गया तो उनकी मूल कृतित्व - काल, कर्म, धर्म व काम के अधिष्ठाता हुए—कालरूप- कृष्ण व उनकी सहोदरी (साथ-साथ उदभूत) राधा-परमेश्वरी......कर्म रूप - ब्रह्मा व नियति (सहोदरी).... धर्म रूप-महादेव व श्रद्धा (सहोदरी) .....एवम कामरूप-अनिरुद्ध व उषा ( सहोदरी )---- इस प्रकार राधा परमात्व तत्व कृष्ण की चिर सहचरी, चिच्छित-शक्ति (ब्रह्मसंहिता) है।
------वही परवर्ती साहित्य में.... श्रीकृष्ण का लीला-रमण व लौकिक रूप के आविर्भाव के साथ उनकी साथी, प्रेमिका, पत्नी हुई व ब्रजबासिनी रूप में जन-नेत्री।
------भागवत-पुराण ...मैं जो आराधिता नाम की गोपी का उल्लेख है ......
किसी एक प्रिय गोपी को भगवान श्री कृष्ण महारास के मध्य में लोप होते समय साथ ले गये थे जिसे ’मान ’ होने पर छोडकर अन्तर्ध्यान हुए थे; संभवतः यह वही गोपी रही होगी जिसे गीत-गोविन्द के रचयिता विद्यापति व सूरदास आदि परवर्ती कवियों, भक्तों ने श्रंगारभूति श्रीकृष्ण (पुरुष) की रसेश्वरी (प्रक्रति) राधा....के रूप मेंकल्पित व प्रतिष्ठित किया।
-------महाभारत में राधा ------
-------- उल्लेख उस समय आ सकता था जब शिशुपाल श्रीकृष्ण की लम्पटता का बखान कर रहा था| परन्तु भागवतकार निश्चय ही राधा जैसे पावन चरित्र को इसमें घसीटना नहीं चाहता होगा, अतः शिशुपाल से केवल सांकेतिक भाषा में कहलवाया गया, अनर्गल बात नहीं कहलवाई गयी|
-------- कुछ विद्वानों के अनुसार महाभारत में तत्व रूप में राधा का नाम सर्वत्र है क्योंकि उसमें कृष्ण को सदैव श्रीकृष्ण कहा गया है | श्री का अर्थ राधा ही है जो आत्मतत्व की भांति सर्वत्र अंतर्गुन्थित है, श्रीकृष्ण = राधाकृष्ण |
******श्री कृष्ण की विख्यात प्राणसखी और उपासिका राधा वृषभानु नामक गोप की पुत्री थी। राधा कृष्ण शाश्वत प्रेम का प्रतीक हैं। राधा की माता कीर्ति के लिए 'वृषभानु पत्नी' शब्द का प्रयोग किया जाता है। राधा को कृष्ण की प्रेमिका और कहीं-कहीं पत्नी के रुप में माना जाता हैं। राधा वृषभानु की पुत्री थी। पद्म पुराणने इसे वृषभानु राजा की कन्या बताया है। यह राजा जब यज्ञ की भूमि साफ कर रहा था, इसे भूमि कन्या के रूप में राधा मिली। राजा ने अपनी कन्या मानकर इसका पालन-पोषण किया। यह भी कथा मिलती है कि विष्णु ने कृष्ण अवतार लेते समय अपने परिवार के सभी देवताओं से पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए कहा। तभी राधा भी जो चतुर्भुज विष्णु की अर्धांगिनी और लक्ष्मी के रूप में वैकुंठलोक में निवास करती थीं, राधा बनकर पृथ्वी पर आई। ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार राधा कृष्ण की सखी थी और उसका विवाह रापाण अथवा रायाण नामक व्यक्ति के साथ हुआ था। अन्यत्र राधा और कृष्ण के विवाह का भी उल्लेख मिलता है। कहते हैं, राधा अपने जन्म के समय ही वयस्क हो गई थी।
---------यह भी किम्बदन्ती है कि जन्म के समय राधा अन्धी थी और यमुना में नहाते समय जाते हुए राजा वृषभानु को सरोवर में कमल के पुष्प पर खेलती हुई मिली। शिशु अवस्था में ही श्री कृष्ण की माता यशोदा के साथ बरसाना में प्रथम मुलाक़ात हुई, पालने में सोते हुए राधा को कृष्ण द्वारा झांक कर देखते ही जन्मांध राधा की आँखें खुल गईं |
****** महान कवियों- लेखकों ने राधा के पक्ष में कान्हा को निर्मोही जैसी उपाधि दी। दे भी क्यूँ न ? राधा का प्रेम ही ऐसा अलौकिक था...उसकी साक्षी थी यमुना जी की लहरें, वृन्दावन की वे कुंजवे गलियाँ वो कदम्ब का पेड़, वो गोधुली बेला जब श्याम गायें चरा कर वापिस आते वो मुरली की स्वर लहरी जो सदैव वहाँ की हवाओं में विद्यमान रहती थी ।
------राधा जो वनों में भटकती, कृष्ण कृष्ण पुकारती, अपने प्रेम को अमर बनाती, उसकी पुकार सुन कर भी ,कृष्ण ने एक बार भी पलट कर पीछे नही देखा। ...तो क्यूँ न वो निर्मोही एवं कठोर हृदय कहलाए ।
*******किन्तु कृष्ण के हृदय का स्पंदन किसी ने नहीं सुना। स्वयं कृष्ण को कहाँ कभी समय मिला कि वो अपने हृदय की बात..मन की बात सुन सकें। जब अपने ही कुटुंब से व्यथित हो कर वे प्रभास -क्षेत्र में लेट कर चिंतन कर रहे थे तब 'जरा' के छोडे तीर की चुभन महसूस हुई। उन्होंने देहोत्सर्ग करते हुए 'राधा' शब्द का उच्चारण किया। जिसे 'जरा' ने सुना और 'उद्धव' को जो उसी समय वह पहुँचे..उन्हें सुनाया। उद्धव की आँखों से आँसू लगतार बहने लगे। सभी लोगों को कृष्ण का संदेश देने के बाद जब उद्धव राधा के पास पहुँचे तो वे केवल इतना कह सके ---" राधा, कान्हा तो सारे संसार के थे ..”
--------किन्तु राधा तो केवल कृष्ण के हृदय में थी…....कान्हा के ह्रदय में तो केवल राधा थीं ....
******समस्त भारतीय वाङग्मय के अघ्ययन से प्रकट होता है कि राधा प्रेम का प्रतीक थीं और कृष्ण और राधा के बीच दैहिक संबंधों की कोई भी अवधारणा शास्त्रों में नहीं है। इसलिए इस प्रेम को शाश्वत प्रेम की श्रेणी में रखते हैं। इसलिए कृष्ण के साथ सदा राधाजी को ही प्रतिष्ठा मिली।
-------बरसाना के श्रीजी के मंदिर में ठाकुर जी भी रहते हैं | भले ही चूनर ओढ़ा देते हैं सखी वेष में रहते हैं ताकि कोई जान न पाये | महात्माओं से सुनते हैं कि ऐसा संसार में कहीं नहीं है जहाँ कृष्ण सखी वेश में रहते हैं | जो पूर्ण पुरुषोत्तम पुरुष सखी बने ऐसा केवल बरसाने में है |
अति सरस्यौ बरसानो जू |
राजत रमणीक रवानों जू ||
जहाँ मनिमय मंदिर सोहै जू |



                                           ****श्रीकृष्ण तत्वामृत*****
-----वो कृष्णा है ----.

****वो गाय चराता है, गोमृत दुहता है...दधि खाता है...उसे माखन बहुत सुहाता है ...वह गोपाल है.....गोविन्द है.....वो कृष्ना है .......
-------गौ अर्थात गाय, ज्ञान, बुद्धि, इन्द्रियां, धरतीमाता ....अतः वह बुद्धि, ज्ञान , इन्द्रियों का, समस्त धरती का (कृषक ) पालक है –गोपाल, वह गौ को प्रसन्नता देता है (विन्दते) गोविन्द है
..... दधि...अर्थात स्थिर बुद्धि, प्रज्ञा ...को पहचानता है...उसके अनुरूप कार्य करता है वह दधि खाता है ...
------माखन उसको सबसे प्रिय है .....माखन अर्थात गौदुग्ध को बिलो कर आलोड़ित करके प्राप्त उसका तत्व ज्ञान पर आचरण करना व संसार को देना उसे सबसे प्रिय है ..

***** “सर्वोपनिषद गावो दोग्धा नन्द नन्दनं “ ...सभी उपनिषद् गायें हैं जिन्हें नन्द नंदन श्री कृष्ण ने दुहा ....गीतामृत रूपी माखन स्वयं खाया, प्रयोग किया ....संसार को प्रदान करने हेतु.....
**** वह बाल लीलाएं करता हुआ कंस जैसे महान अत्याचारी सम्राट का अंत करता है ...
****वो प्रेम गीत गाता है वह गोपिकाओं के साथ रमण करता है, नाचता है , प्रेम करता है , राधा का प्रेमी है, कुब्जा का प्रेमी है ...मोहन है ...परन्तु उसे किसी से भी प्रेम नहीं है...निर्मोही है ...वह किसी का नहीं .. वह सभी से सामान रूप से प्रेम करता है ..वह सबका है और सब उसके ...
****वो आठ पटरानियों का एवं १६०० पत्नियों का पति है, पुत्र-पुत्रियों में, संसार में लिप्त है ...परन्तु योगीराज है, योगेश्वर है |
****वो कर्म के गीत गाता है एवं युद्ध क्षेत्र में भी भक्ति व ज्ञान का मार्ग, धर्म की राह दिखाता है ,,,गीता रचता है ....
---- वो रणछोड़ है ...वो स्वयं युद्ध नहीं करता, अस्त्र नहीं उठाता, परन्तु विश्व के सबसे भीषण युद्ध का प्रणेता, संचालक व कारक है |
---अपने सम्मुख ही अपनी नारायणी सेना का विनाश कराता है, कुलनाश कराता है...
---काल के महान विद्वान् उसके आगे शीश झुकाते हैं ...
------------वो कृष्णा, कृष्ण है श्री कृष्ण है ...............
****वह कोइ विशेषज्ञ नहीं अपितु शेषज्ञ है उसके आगे काल व ज्ञान स्वयं शेष होजाते हैं |
---------- वह कृष्ण है ..........
@@@@@ कर्म शब्द कृ धातु से निकला है कृ धातु का अर्थ है करना। इस शब्द का पारिभाषिक अर्थ कर्मफल भी होता है।
-----कृ से उत्पन्न कृष का अर्थ है विलेखण......आचार्यगण कहते हैं..... ‘संसिद्धि: फल संपत्ति:’ अर्थात फल के रूप में परिणत होना ही संसिद्धि है और ‘विलेखनं हलोत्कीरणं ”
अर्थात विलेखन शब्द का अर्थ है हल-जोतना |..जो तत्पश्चात अन्नोत्पत्ति के कारण ..मानव जीवन के सुख-आनंद का कारण ...अतः कृष्ण का अर्थ.. कृष्णन, कर्षण, आकर्षक, आकर्षण व आनंद स्वरूप हुआ... | ----वो कृष्ण है
------ 'संस्कृति' शब्द भी ….'कृष्टि' शब्द से बना है, जिसकी व्युत्पत्ति संस्कृत की 'कृष' धातु से मानी जाती है, जिसका अर्थ है- 'खेती करना', संवर्धन करना, बोना आदि होता है। सांकेतिक अथवा लाक्षणिक अर्थ होगा- जीवन की मिट्टी को जोतना और बोना। …..‘संस्कृति’ शब्द का अंग्रेजी पर्याय "कल्चर" शब्द ( ( कृष्टि -कल्ट कल्चर ) भी वही अर्थ देता है। कृषि के लिए जिस प्रकार भूमि शोधन और निर्माण की प्रक्रिया आवश्यक है, उसी प्रकार संस्कृति के लिए भी मन के संस्कार–परिष्कार की अपेक्षा होती है।
____अत: जो कर्म द्वारा मन के, समाज के परिष्करण का मार्ग प्रशस्त करता है वह कृष्ण है... | 'कृष' धातु में 'ण' प्रत्यय जोड़ कर 'कृष्ण' बना है जिसका अर्थ आकर्षक व आनंद स्वरूप कृष्ण है..
---वो कृष्ना है...कृष्ण है .....
****शिव–नारद संवाद में शिव का कथन ---‘कृष्ण शब्द में कृष शब्द का अर्थ समस्त और 'न' का अर्थ मैं...आत्मा है .इसीलिये वह सर्वआत्मा परमब्रह्म कृष्ण नाम से कहे जाते हैं| कृष का अर्थ आड़े’.. और न.. का अर्थ आत्मा होने से वे सबके आदि पुरुष हैं |"..
-----..अर्थात कृष का अर्थ आड़े-तिरछा और न (न:=मैं, हम...नाम ) का अर्थ आत्मा ( आत्म ) होने से वे सबके आदि पुरुष हैं...कृष्ण हैं| क्रिष्ट..क्लिष्ट ...टेड़े..त्रिभंगी...कृष्ण की त्रिभंगी मुद्रा का यही तत्व-अर्थ है...
**** कृष्ण = क्र या कृ = करना, कार्य=कर्म …..राधो = आराधना, राधन, रांधना, गूंथना, शोध, नियमितता , साधना....राधा....
गवामप ब्रजं वृधि कृणुश्व राधो अद्रिव:
नहि त्वा रोदसी उभे ऋघायमाणमिन्वतः |...ऋग्वेद
---ब्रज में गौ – ज्ञान, सभ्यता उन्नति की वृद्धि ...कृष्ण-राधा द्वारा हुई = कर्म व साधना द्वारा की गयी शोधों से हुई ....साधना के बिना कर्म सफल कब होता है ... वो राधा है
****राध धातु से राधा और कृष धातु से कृष्ण नाम व्युत्पन्न हुये| राध धातु का अर्थ है संसिद्धि ( वैदिक रयि= संसार..धन, समृद्धि एवं धा = धारक )...
----ऋग्वेद-५/५२/४०९४-- में राधो व आराधना शब्द ..शोधकार्यों के लिए प्रयुक्त किये गए हैं...यथा..
“ यमुनामयादि श्रुतमुद्राधो गव्यं म्रजे निराधो अश्वं म्रजे |”....अर्थात यमुना के किनारे गाय ..घोड़ों आदि धनों का वर्धन, वृद्धि, संशोधन व उत्पादन आराधना सहित करें या किया जाता है |
****नारद पंचरात्र में राधा का एक नाम हरा या हारा भी वर्णित है...वर्णित है | जो गौडीय वैष्णव सम्प्रदाय में प्रचलित है| अतः महामंत्र की उत्पत्ति....
**** हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे// ----
-------सामवेद की छान्दोग्य उपनिषद् में कथन है...
”स्यामक केवलं प्रपध्यये, स्वालक च्यमं प्रपध्यये स्यामक”....
----श्यामक अर्थात काले की सहायता से श्वेत का ज्ञान होता है (सेवा प्राप्त होती है).. तथा श्वेत की सहायता से हमें स्याम का ज्ञान होता है ( सेवा का अवसर मिलता है)....यहाँ श्याम ..कृष्ण का एवं श्वेत राधा का प्रतीक है |
****नास्ति कृष्णार्चंनम राधार्चनं बिना ......
------जय कन्हैयालाल की ...जय राधा गोविन्द की -----.

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मंगलवार, 26 जुलाई 2016

अखिल भारतीय साहित्य परिषद, लखनऊ की गोष्ठी..... डा श्याम गुप्त...



        अखिल भारतीय साहित्य परिषद, लखनऊ की गोष्ठी.....


                २४-७-१६ रविवार शाम को अखिल भारतीय साहित्य परिषद, लखनऊ,महानगर के तत्वावधान में काव्य संध्या का आयोजन डाॅ. सुभाष गुरुदेव के आवास- के. 01,बंसल हलवासिया एन्क्लेव, एच.ए.एल. के सामने इंदिरा नगर में किया गया।   
  
            सुनील बाजपेयी के संचालन में सम्पन्न हुए कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री घनानंद पाण्डेय 'मेघ ' मुख्य अतिथि डाॅ. श्याम गुप्त एवं वि. अतिथि श्री कुमार तरल जी रहे।  

           देर रात तक चले कार्यक्रम में कवियों ने खूब वाहवाही व तालियाँ बटोरीं। काव्य संध्या में सर्वश्री आदित्य चतुर्वेदी,शिव मंगल सिंह मंगल,गौबर गणेश,अनिल अनाड़ी,सुभाष गुरुदेव,श्याम नारायण पाण्डेय, मानस मुकुल त्रिपाठी, विजय त्रिपाठी, डा. सुनीलकुमार, केवल प्रसाद सत्यम, विश्वंभर नाथ अवस्थी और रवीन्द्र नाथ मिश्र आदि वरिष्ठ कवियों की एक से बढ़कर एक रचनाओं ने भाव विभोर किया । 
             
           






 

        


        अंत में मेजबान डाॅ.सुभाष गुरुदेव ने सबका आभार व्यक्त करते हुए धन्यवाद ज्ञापित किया।

बुधवार, 20 जुलाई 2016

सत्य शुचि आचरण जरूरी है .....जीवन दृष्टि ..से ..डा श्याम गुप्त ..

सत्य शुचि आचरण जरूरी है .....जीवन दृष्टि ..से .

           


                              आजकल धर्म व सेवा कार्यों की बाढ़ सी आगई है, कोइ एक लाख पेड़ लगवाता है, कोइ पशुओं की संवेदना-सुरक्षा, कोइ जल-वायु, पर्यावरण की चिंता, कोइ भ्रष्टाचार पर भाषण, कोइ धार्मिक श्रृद्धा जागरण, कोइ देश-जाति सम्मान पर विचार-सेवाएं देने को आतुर-तत्पर है |
                            परन्तु मेरे विचार में ये सब कृतित्व पत्तियों, फल-फूल , शाखाओं आदि पर जल छिड़कने के समान हैं | मानव समाज व जीवन का मूल -मानव आचरण में है, जब तक मानव मात्र का आचरण संवर्धन नहीं होगा कोई भी कार्य सम्पूर्ण नहीं होसकता, संसार के द्वंद्व कम  नहीं होंगे  |
                         ठीक है पत्तियों शाखाओं आदि पर संवर्धन-छिडकाव आदि भी आवश्यक है | परन्तु मानव आचरण सुधार की बात मूल अत्यावश्यक तत्व है | इसके सुधरते ही सब कुछ ठीक होने लगता है .....प्रस्तुत है एक रचना ----

    सत्य शुचि आचरण जरूरी है .....

न कोई नीति नियम, न कोई रीति धरम,
न कोई योग करम शास्त्र ही जरूरी है |
न कीर्तन न भजन, न ज्ञान का प्रवचन,
न कोई तीर्थ न दान-पुण्य जरूरी है |

बात हो अनय-अनीति के समापन की |
या कि सद्नीति- नय के स्थापन की |
एक ही नीति-नियम सर्वदा सनातन है |
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है |

बात चाहे हो दहेज़ के संचारण की |
बात पत्नी के हो दाह की, प्रतारण की |
बात हो चाल-चलन की, अशुभ विचारण की |
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है |

भ्रष्ट आचरण आचार व तन मन से हुए |
भूलकर देश धरम, लिप्त निज स्वार्थ हुए |
कैसे भर पायं स्वयं खोदे हुए अंधे कुए |
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है |

संस्थाएं, नीति-नियम,शास्त्र व समाज सभी ,
जड़, निर्जीव व अविचारी हुआ करते हैं |
जीव, मानव ही तो सोच समझ पाता है ,
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है ||

रविवार, 17 जुलाई 2016

इतना तो खतावार हूँ मैं.... जीवन दृष्टि काव्य संग्रह से..... डा श्याम गुप्त....

इतना तो खतावार हूँ मैं....  जीवन दृष्टि काव्य संग्रह से.....


न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं,
दिल में उठते हुए भावों का तलबगार हूँ मैं ||

काम दुनिया के हर रोज़ चला करते हैं,
साज जीवन के हर रोज़ सजा करते हैं|
शब्द रस रंग सभी उर में सजे होते हैं,
ज्ञान के रूप भी हर मन में बसे होते हैं |
भाव दुनिया के हवाओं में घुले रहते हैं,
गीत तो दिल की सदाओं में खिले रहते हैं |

उन्हीं बातों को लिखा करता, कलमकार हूँ मैं,
न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं ||

प्रीति की बात ज़माने में सदा होती है,
रीति की बात पै दुनिया तो सदा रोती है |
बदले इंसान व तख्तो-ताज ज़माना सारा,
प्यार की बात भी कब बात नई होती है |
धर्म ईमान पै कुछ लोग सदा कहते हैं,
देश पै मरने वाले भी सदा रहते हैं |

उन्हीं बातों को कहा करता कथाकार हूँ मैं ,
न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं ||

बात सच सच मैं जमाने को सुनाया करता,
बात शोषण की ज़माने को बताया करता |
धर्म साहित्य कला देश या नेता कोई ,
सब की बातें मैं जन जन को सुनाया करता |

लोग बिक जाते हैं, उनमें ही रंग जाते हैं,
भूलकर इंसां को सिक्कों के गीत गाते हैं|
बिक नहीं पाता, इतना तो खतावार हूँ मैं,
दिल की सुनता हूँ, इसका तो गुनहगार हूँ मैं|

न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं,
दिल में उठते हुए भावों का तलबगार हूँ मैं ||

अनुबंधित सम्बन्ध ----काव्य संग्रह 'जीवन दृष्टि से....डा श्याम गुप्त

अनुबंधित सम्बन्ध ----काव्य संग्रह 'जीवन दृष्टि से....

अनुबंधों के जग में अब,
क्या संबंधों की बात करें |
स्वार्थ न तुझसे कोई है तो-
अपने ही प्रतिघात करें |


अनुबंधों के जग में अब,
क्या संबंधों की बात करें ||

आज नहीं परमार्थ भाव से ,
साथ किसी का कोई देता |
दो हाथों से लेलेता है,
एक हाथ से यदि कुछ देता |

रिश्ते नाते स्वार्थ भरे हैं ,
सब क्यों तुझको पूछ रहे |
तेरी दौलत ,धन, ऊंचाई ,
माप तौल कर बूझ रहे |

तेरे हैं अनुबंध बहुत संग,
फिर क्यों ना संवाद करें ||

हमने तो देखा है यह जग,
बहुत दूर से, बहुत पास से |
हमने पूछ के, सुनके देखा,
सभी आम से, सभी ख़ास से |

जिसको तुझसे लाभ मिल रहा,
तुझको अपना मानेंगे |
तू निष्प्रह, निष्पक्ष भाव तो,
क्यों तुझको सम्मानेंगे ।

उनके स्वार्थ में साथ न दे तू,
फिर क्यों तुझे सलाम करें ||

पिता पुत्र माँ पत्नी पुत्री,
सखा सखी साथी कर्मी |
सारे प्रिय सम्बन्ध, प्रीतिरस,
अपने ही हित के धर्मी |

तू हित साधन जब तक होगा,
प्रीति रीति तब तक होगी |
अनुचित कर्मों के तेरे फल-
का न कोई होगा भोगी |

क्यों न भला फिर, मन के-
सच्चे संबंधों की बात करें |

मानव, ईश्वर, भक्ति, न्याय-
सत अनुबंधों की बात करें |
अनुबंधों के जग में अब -
क्या संबंधों की बात करें ||