मंगलवार, 26 जुलाई 2016

अखिल भारतीय साहित्य परिषद, लखनऊ की गोष्ठी..... डा श्याम गुप्त...



        अखिल भारतीय साहित्य परिषद, लखनऊ की गोष्ठी.....


                २४-७-१६ रविवार शाम को अखिल भारतीय साहित्य परिषद, लखनऊ,महानगर के तत्वावधान में काव्य संध्या का आयोजन डाॅ. सुभाष गुरुदेव के आवास- के. 01,बंसल हलवासिया एन्क्लेव, एच.ए.एल. के सामने इंदिरा नगर में किया गया।   
  
            सुनील बाजपेयी के संचालन में सम्पन्न हुए कार्यक्रम के अध्यक्ष श्री घनानंद पाण्डेय 'मेघ ' मुख्य अतिथि डाॅ. श्याम गुप्त एवं वि. अतिथि श्री कुमार तरल जी रहे।  

           देर रात तक चले कार्यक्रम में कवियों ने खूब वाहवाही व तालियाँ बटोरीं। काव्य संध्या में सर्वश्री आदित्य चतुर्वेदी,शिव मंगल सिंह मंगल,गौबर गणेश,अनिल अनाड़ी,सुभाष गुरुदेव,श्याम नारायण पाण्डेय, मानस मुकुल त्रिपाठी, विजय त्रिपाठी, डा. सुनीलकुमार, केवल प्रसाद सत्यम, विश्वंभर नाथ अवस्थी और रवीन्द्र नाथ मिश्र आदि वरिष्ठ कवियों की एक से बढ़कर एक रचनाओं ने भाव विभोर किया । 
             
           






 

        


        अंत में मेजबान डाॅ.सुभाष गुरुदेव ने सबका आभार व्यक्त करते हुए धन्यवाद ज्ञापित किया।

बुधवार, 20 जुलाई 2016

सत्य शुचि आचरण जरूरी है .....जीवन दृष्टि ..से ..डा श्याम गुप्त ..

सत्य शुचि आचरण जरूरी है .....जीवन दृष्टि ..से .

           


                              आजकल धर्म व सेवा कार्यों की बाढ़ सी आगई है, कोइ एक लाख पेड़ लगवाता है, कोइ पशुओं की संवेदना-सुरक्षा, कोइ जल-वायु, पर्यावरण की चिंता, कोइ भ्रष्टाचार पर भाषण, कोइ धार्मिक श्रृद्धा जागरण, कोइ देश-जाति सम्मान पर विचार-सेवाएं देने को आतुर-तत्पर है |
                            परन्तु मेरे विचार में ये सब कृतित्व पत्तियों, फल-फूल , शाखाओं आदि पर जल छिड़कने के समान हैं | मानव समाज व जीवन का मूल -मानव आचरण में है, जब तक मानव मात्र का आचरण संवर्धन नहीं होगा कोई भी कार्य सम्पूर्ण नहीं होसकता, संसार के द्वंद्व कम  नहीं होंगे  |
                         ठीक है पत्तियों शाखाओं आदि पर संवर्धन-छिडकाव आदि भी आवश्यक है | परन्तु मानव आचरण सुधार की बात मूल अत्यावश्यक तत्व है | इसके सुधरते ही सब कुछ ठीक होने लगता है .....प्रस्तुत है एक रचना ----

    सत्य शुचि आचरण जरूरी है .....

न कोई नीति नियम, न कोई रीति धरम,
न कोई योग करम शास्त्र ही जरूरी है |
न कीर्तन न भजन, न ज्ञान का प्रवचन,
न कोई तीर्थ न दान-पुण्य जरूरी है |

बात हो अनय-अनीति के समापन की |
या कि सद्नीति- नय के स्थापन की |
एक ही नीति-नियम सर्वदा सनातन है |
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है |

बात चाहे हो दहेज़ के संचारण की |
बात पत्नी के हो दाह की, प्रतारण की |
बात हो चाल-चलन की, अशुभ विचारण की |
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है |

भ्रष्ट आचरण आचार व तन मन से हुए |
भूलकर देश धरम, लिप्त निज स्वार्थ हुए |
कैसे भर पायं स्वयं खोदे हुए अंधे कुए |
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है |

संस्थाएं, नीति-नियम,शास्त्र व समाज सभी ,
जड़, निर्जीव व अविचारी हुआ करते हैं |
जीव, मानव ही तो सोच समझ पाता है ,
सत्य शुचि आचरण मनुज का जरूरी है ||

रविवार, 17 जुलाई 2016

इतना तो खतावार हूँ मैं.... जीवन दृष्टि काव्य संग्रह से..... डा श्याम गुप्त....

इतना तो खतावार हूँ मैं....  जीवन दृष्टि काव्य संग्रह से.....


न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं,
दिल में उठते हुए भावों का तलबगार हूँ मैं ||

काम दुनिया के हर रोज़ चला करते हैं,
साज जीवन के हर रोज़ सजा करते हैं|
शब्द रस रंग सभी उर में सजे होते हैं,
ज्ञान के रूप भी हर मन में बसे होते हैं |
भाव दुनिया के हवाओं में घुले रहते हैं,
गीत तो दिल की सदाओं में खिले रहते हैं |

उन्हीं बातों को लिखा करता, कलमकार हूँ मैं,
न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं ||

प्रीति की बात ज़माने में सदा होती है,
रीति की बात पै दुनिया तो सदा रोती है |
बदले इंसान व तख्तो-ताज ज़माना सारा,
प्यार की बात भी कब बात नई होती है |
धर्म ईमान पै कुछ लोग सदा कहते हैं,
देश पै मरने वाले भी सदा रहते हैं |

उन्हीं बातों को कहा करता कथाकार हूँ मैं ,
न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं ||

बात सच सच मैं जमाने को सुनाया करता,
बात शोषण की ज़माने को बताया करता |
धर्म साहित्य कला देश या नेता कोई ,
सब की बातें मैं जन जन को सुनाया करता |

लोग बिक जाते हैं, उनमें ही रंग जाते हैं,
भूलकर इंसां को सिक्कों के गीत गाते हैं|
बिक नहीं पाता, इतना तो खतावार हूँ मैं,
दिल की सुनता हूँ, इसका तो गुनहगार हूँ मैं|

न कहो कवि या शब्दों का कलाकार हूँ मैं,
दिल में उठते हुए भावों का तलबगार हूँ मैं ||

अनुबंधित सम्बन्ध ----काव्य संग्रह 'जीवन दृष्टि से....डा श्याम गुप्त

अनुबंधित सम्बन्ध ----काव्य संग्रह 'जीवन दृष्टि से....

अनुबंधों के जग में अब,
क्या संबंधों की बात करें |
स्वार्थ न तुझसे कोई है तो-
अपने ही प्रतिघात करें |


अनुबंधों के जग में अब,
क्या संबंधों की बात करें ||

आज नहीं परमार्थ भाव से ,
साथ किसी का कोई देता |
दो हाथों से लेलेता है,
एक हाथ से यदि कुछ देता |

रिश्ते नाते स्वार्थ भरे हैं ,
सब क्यों तुझको पूछ रहे |
तेरी दौलत ,धन, ऊंचाई ,
माप तौल कर बूझ रहे |

तेरे हैं अनुबंध बहुत संग,
फिर क्यों ना संवाद करें ||

हमने तो देखा है यह जग,
बहुत दूर से, बहुत पास से |
हमने पूछ के, सुनके देखा,
सभी आम से, सभी ख़ास से |

जिसको तुझसे लाभ मिल रहा,
तुझको अपना मानेंगे |
तू निष्प्रह, निष्पक्ष भाव तो,
क्यों तुझको सम्मानेंगे ।

उनके स्वार्थ में साथ न दे तू,
फिर क्यों तुझे सलाम करें ||

पिता पुत्र माँ पत्नी पुत्री,
सखा सखी साथी कर्मी |
सारे प्रिय सम्बन्ध, प्रीतिरस,
अपने ही हित के धर्मी |

तू हित साधन जब तक होगा,
प्रीति रीति तब तक होगी |
अनुचित कर्मों के तेरे फल-
का न कोई होगा भोगी |

क्यों न भला फिर, मन के-
सच्चे संबंधों की बात करें |

मानव, ईश्वर, भक्ति, न्याय-
सत अनुबंधों की बात करें |
अनुबंधों के जग में अब -
क्या संबंधों की बात करें ||

एक नियम है इस जीवन का ...जीवन दृष्टि -गीत संग्रह से ..डा श्याम गुप्त



एक नियम है इस जीवन का ....( शीघ्र प्रकाश्य -जीवन दृष्टि -गीत संग्रह से ...)

एक नियम है इस जीवन का,
जीवन का कुछ नियम नहीं है ।
एक नियम जो सदा-सर्वदा,
स्थिर है, परिवर्तन ही है |


पल पल, प्रतिपल परिवर्तन का,
नर्तन होता है जीवन में |
जीवन की हर डोर बंधी है,
प्रतिपल नियमित परिवर्तन में |

जो कुछ कारण-कार्य भाव है,
सृष्टि, सृजन ,लय, स्थिति जग में |
नियम व अनुशासन,शासन सब,
प्रकृति-नटी का नर्तन ही है |

विविधि भाँति की रचनाएँ सब,
पात-पात औ प्राणी-प्राणी |
जल थल वायु उभयचर रचना ,
प्रकृति-नटी का ही कर्तन है |

परिवर्धन, अभिवर्धन हो या ,
संवर्धन हो या फिर वर्धन |
सब में गति है, चेतनता है,
मूल भाव परिवर्तन ही है |

चेतन ब्रह्म, अचेतन अग-जग ,
काल हो अथवा ज्ञान महान |
जड़-जंगम या जीव सनातन,
जल द्यौ वायु सूर्य गतिमान |

जीवन मृत्यु भाव अंतर्मन,
हास्य, लास्य के विविधि विधान |
विधिना के विविधान विविधि-विधि,
सब परिवर्तन की मुस्कान |

जो कुछ होता, होना होता ,
होना था या हुआ नहीं है |
सबका नियमन,नियति,नियामक .
एक नियम परिवर्तन ही है ||